कुछ समय से भारतीय किसान की स्तिथि पर चिंतन करने वाले लोगों से संपर्क में हूँ। अलग-अलग विचार सामने आ रहे हैं पर फिर भी उनमें कुछ समानताएं हैं। इसी आधार पर पी सैनाथ का एक लंबा लेख हाशिया पर पढने को मिला। काफ़ी प्रासंगिक और मर्म से भरा था, सो और लोगों को भी पढाने की ज़रूरत लगी।
(आभार- हाशिया )
पहले हम किसानों को लूटते हैं फिर मार डालते हैं
किसान इस देश में सबसे हिकारत कि चीज़ बना दिए गए हैं। उनके नाम पर कर्ज़माफी की छलावे और धोखेबाजियों भरी घोषणा करके सरकार किसान-कन्हैया बन जाती हैं और किसान भौंचक रहते हैं कि उन्हें मिला क्या। एक निर्मम प्रक्रिया हैं जो सरकार चलाने से लेकर नीतियाँ बनाने और उन्हें लागू कराने तक में दिखती हैं। और इन सबसे जो निकलता हैं, वह हैं एक लाख से अधिक किसानों की आत्महत्या और हजारों किसानों का विद्रोह। किसानों की आत्महत्या विषय पर पी साईनाथ ने 6 सितंबर, 2007 को संसद में स्पीकर लेक्चर सीरीज़ में यह लंबा व्याख्यान दिया था। इसका हिन्दी अनुवाद किया हैं साथी मनीष शांडिल्य ने।
कृषि क्षेत्र का संकटपिछले दशक में एक लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या क्यों की ? पी साईंनाथहम एक राष्ट्र के रूप में पिछले चार दशकों में सबसे गंभीर कृषि संकट से गुजर रहे हैं। इतने बड़े मुद्दे के सभी पहलूओं को एक साथ समेटना असंभव है। इस कारण मैं आज इस मुद्दे पर टुकड़ों में अपनी बात रखूँगा। मैं यह जोर देना चाहूँगा कि संकट इतना गंभीर और व्यापक है कि पहली बात तो यह कि न तो कोई राज्य इसे बचा है एवं दूसरी यह कि इसे एक पार्टी या एक सरकार या एक राज्य की समस्या के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। यह एक राष्ट्रीय समस्या है और हमें इसका सामना इसी रूप में करना चाहिए। यह एक बड़ी बात है। इस संकट में हुई आत्महत्याएँ हालाँकि दुखद है, पर यह केवल रोग के लक्षण है न कि रोग। ये परिणाम हैं, न कि प्रक्रिया।पिछले 15 वर्षों में इस संकट के परिणामस्वरूप जीविकोपार्जन के लाखों साधन या तो नष्ट हुए हैं या फिर क्षतिग्रस्त हुए हैं। लेकिन अगर आप मीडिया में देखें तो पायेंगे कि हम कृषि संकट या खेती का संकट जैसे शब्दों का प्रयोग बड़े पैमाने पर तीन या चार वर्षों से ही कर रहे हैं। पहले इस तरह के किसी भी संकट को पूरी तरह नकार दिया जाता था।मद्रास इंस्टीच्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज के प्रो के नागराज के शब्दों में कहें तो हम इस पूरी स्थिति को एक पंक्ति में इस तरह रख सकते हैं-जो प्रक्रिया इस संकट को संचालित कर रही है वो है- गाँवों के लूटनेवाली व्यवसायीकरण की प्रक्रिया। सभी मानवीय मूल्यों की विनिमय मूल्यों में तब्दीली। यह प्रक्रिया जैसे-जैसे ग्रामीण भारत में बढ़ती गई, जीविका के लाखों साधन ध्वस्त हो गये। लाखों लोग कस्बों और शहरों की ओर रोजगार की तलाश में पलायन कर रहे हैं, पर वहाँ काम नहीं हैं। वो एक ऐसी स्थिति की ओर बढ़ते हैं, जहाँ न तो वो मजदूर हैं और न ही किसान। कई घरेलू नौकर बन कर रह जाते हैं, जैसे कि दिल्ली शहर में झारखंड की एक लाख से अधिक लड़कियाँ घरेलू नौकरानियों के रूप में काम कर रही हैं।छोटी जोतवाले किसानों का विश्व-व्यापी संकटहालाँकि मैं तो कहना चाहता हूँ कि यह संकट किसी भी रूप में सिर्फ भारत से जुड़ा हुआ नहीं है और जैसा कि मैंने ऊपर कहा भी है। यह छोटे पैमाने पर खेती करने वालों का विश्वव्यापी संकट है। पूरी पश्थ्वी पर से छोटे पारिवारिक खेतों को मिटाया जा रहा है और ऐसा पिछले 20 से 30 वर्षों से होता आ रहा है। यह ठीक है कि पिछले 15 साल में भारत में यह प्रक्रिया काफी तेज हुई है। नहीं तो किसानों की आत्महत्या ने कोरिया में भी काफी गंभीर चिंताएँ उत्पन्न किया है। नेपाल और श्रीलंका में भी आत्महत्याओं की दर काफी ऊँची है। अफ्रीका, बुर्किना फासो, माली जैसे इलाकों में बड़े पैमाने पर हुई आत्महत्याओं का कारण यह है कि संरा अमेरिका और यूरोपीय यूनियन की सब्सिडियों के कारण उनके कपास उत्पाद का कोई खरीददार नहीं रहा।इत्तफाक से, संरा अमेरिका के मिडवेस्ट और अन्य ग्रामीण क्षेत्रों में भी समय-समय पर किसानों ने बड़े पैमाने पर आत्महत्याएँ की हैं। वास्तव में, अस्सी के दशक में अकलाहोमा में किसानों के आत्महत्या की दर संरा अमेरिका के राष्ट्रीय आत्महत्या दर के दुगुनी से भी ज्यादा थी और ऐसा कम ही होता है कि ग्रामीण आत्महत्या दर शहरी आत्महत्या के दर से ज्यादा हो। मैंने पिछले साल अमेरिकी किसानों के साथ कुछ समय बिताया और मैं यह देख सका कि किस तरह वे पिछड़ रहे हैं।
हम कई रूपों में छोटे किसानों को टूटते और मरते देख रहे हैं। यह बहुत जरूरी है कि हम कुछ करें क्योंकि हमारा देश ऐसा सबसे बड़ा देश है जहाँ छोटे जोते वाले किसानों की संख्या सबसे ज्यादा है। संभवतः हमारे यहाँ ही खेतिहर मजदूरों और भूमिहीन श्रमिकों की संख्या सबसे ज्यादा है। अगर आप गौर करें तो संरा अमेरिका में जो कुछ घटा उससे सबक लेना चाहिए।संरा अमेरिका में 1930 में 60 लाख पारिवारिक खेत थे। यह वह समय था जब भारत स्वतंत्रता प्राप्त करने से ठीक एक दशक के आसपास दूर था, तब अमेरिका की एक चौथाई आबादी इन 60 लाख खेतों पर आश्रित थी और इनमें काम करती थी। आज अमेरिका में खेतों में काम करने वालों से ज्यादा लोग जेलों में बंदी हैं। आज 7 लाख लोग खेतों पर आश्रित हैं और 21 लाख लोग जेलों में हैं।हमें कॉरपोरेट खेती की ओर धकेला जा रहा हैयह प्रक्रिया हमें किस ओर ले जा रही है ? दो शब्दों में कहें तो कॉरपोरेट खेती की ओर। यह भारत और पूरे विश्व में आने वाले दिनों में खेती की बड़ी तस्वीर है। हमें कॉरपोरेट खेती की ओर धकेला जा रहा है। एक प्रक्रिया जिसमें खेती को किसानों से छीना जा रहा है और कॉरपोरेट के हाथों में सौंप दिया जा रहा है। संरा अमेरिका में बिल्कुल ऐसा ही हुआ है और विश्व के अन्य कई देशों में भी। यह जीत बंदूकों, ट्रकों, बुलडोजरों और लाठियों के सहारे नहीं मिली। ऐसा किया गया लाखों छोटे जोत वाले किसानों के लिए खेती को अलाभकारी बनाकर, वर्त्तमान ढाँचे में खेती कर गुजर-बसर करना असंभव कर दिया गया। यह सब बातें तब सामने आईं जब स्वतंत्र भारत के इतिहास में असमानता को तेजी से बढ़ता देखा गया। और यह समझने वाली बात है कि जब समाज में असमानता बढ़ती है, तब सबसे ज्यादा भार कृषि क्षेत्र पर ही पड़ता है। हर हाल में यह एक अलाभकारी क्षेत्र है। इस कारण जब असमानता बढ़ती है तो कृषि क्षेत्र पर काफी बुरा प्रभाव पड़ता है।भारत में असमानता का विध्वंसकारी विकासखरबपतियों में चौथा स्थान- मुझे पूरा विश्वास है कि आप यह जान कर रोमांचित हो जायेंगे कि 2007 में भारत में खरबपतियों की चौथी सबसे बड़ी संख्या थी। खरबपतियों की संख्या में हम संरा अमेरिका, जर्मनी और रूस को छोड़ सभी देशों से आगे हैं। इतना ही नहीं कुल संपत्ति के मामले में हमारे खरबपति जर्मनी और रूस के खरबपतियों के मुकाबले ज्यादा धनी हैं। आप फोर्ब्स पर जाकर विश्व के खरबपतियों की पूरी संख्या देख सकते हैं।
मानव विकास में 126 वें स्थान पर - हमारे पास दुनिया का दूसरा सबसे धनी खरबपति है और खरबपतियों की कुल संख्या में हम चौथे स्थान पर हैं। लेकिन हम मानव विकास में126वें स्थान पर हैं। 126वें स्थान पर होने का मतलब क्या है ? इसका मतलब है कि बोलीविया (दक्षिणी अमेरिका का सबसे गरीब देश) या ग्वाटेमाला या गैबॉन में गरीब होना भारत में गरीब होने से ज्यादा अच्छा है। ये देश संयुक्त राष्ट्र संघ के मानव विकास सूचकांक में हमसे आगे हैं। आप पिछले 10 या 15 वर्षों के संयुक्त राष्ट्र संघ के मानव विकास सूचकांक रिपोर्ट में यह सब आँकड़े प्राप्त कर सकते हैं, जो कि संसद के पुस्तकालय में उपलब्ध हैं।
83.6 करोड़ लोग प्रतिदिन 20 रूपये से कम पर जीते हैं - हम विश्व अर्थव्यवस्था में उभरते हुए शेर (tiger economy) हैं। लेकिन हमारे देश में जीवन प्रत्याशा बोलीविया, कजागिस्तान और मंगोलिया से भी कम है। हमारे पास एक लाख करोड़पति हैं और मुझे ऐसा कहते गर्व होता है कि जिसमें से 25 हजार मेरे शहर मुंबई के ही हैं। फिर भी भारत सरकार के अनुसार हमारे देश में 83.6 करोड़ जनता अब भी रोजाना 20 रूपये से भी कम पर जीती है। भारतीय सच्चाई के समान दूसरी कोई चीज नहीं है। ऐसी कई भारतीय सच्चाईयाँ (वास्तविकताएँ) हैं। ऐसी सच्चाई के कई रूप हैं।
नवजात शिशु मश्त्यु का गिरता दर धीमा हुआ - हमारे देश का विकास दर वास्तव में बहुतों के ईर्ष्या का कारण है। लेकिन पिछले 15 सालों में हमारे देश में नवजात शिशु मश्त्यु का गिरता स्तर धीमा हुआ है अर्थात् नवजात शिशु मश्त्यु दर बढ़ा है। चीन के बाद यह देश वार्षिक 25 लाख नवजात शिशुओं की मश्त्यु के साथ पुरी दुनिया में दूसरे स्थान पर रहा।
सीईओं का वेतन अब तक के सबसे ऊँचे स्तर पर-पिछले दस साल में मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) को मिलने वाले पैकेज में जैसी वश्द्धि हुई है, वैसी कभी नहीं हुई। वास्तविकता तो यह है कि अपने देश के प्रधानमंत्री को मजबूर होकर सीईओं के वेतन पर टिप्पणी करनी पड़ी। लेकिन जहाँ एक ओर सीईओ के वेतन में छप्पर-फाड़ वश्द्धि हुई वहीं खेती से होने वाली आमदनी लगभग जमीन पर आ गई है।खेतिहर घरों का डरावना प्रति व्यक्ति औसत मासिक खर्च (MPCE) -भारत के खेतिहर घरों (जमींदारों और आधा एकड़ वाले किसानों सहित) में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार प्रति व्यक्ति औसत मासिक खर्च मात्र 503 रुपये है।
खर्च की दयनीय प्रवश्त्ति- इन 503 रुपयों में 55 प्रतिशत या उससे भी ज्यादा हिस्सा भोजन पर खर्च होता है। 18 प्रतिशत जलावन, कपड़ों और जूते-चप्पल पर खर्च होता है। इसके बाद शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे जरूरी मद में खर्च करने को काफी कम बच पाता है। स्वास्थ्य पर शिक्षा के मुकाबले दुगुना खर्च किया जाता है क्योंकि वर्त्तमान में हमारे पास विश्व का छठवां सबसे बड़ा निजीकृत स्वास्थ्य तंत्र है। इस कारण MPCE यह दिखाता है कि स्वास्थ्य पर शिक्षा के 17 रुपये के मुकाबले 34 रुपये खर्च किये जाते हैं। शिक्षा पर मासिक 17 रुपये खर्च का अर्थ है कि प्रतिदिन शिक्षा पर 50 पैसे से थोड़ा अधिक खर्च हो रहा है। यह भारतीय खेतिहर घरों के खर्च का तरीका है, यह राष्ट्रीय औसत है। मैं राज्यवार आँकड़ों पर बाद में आऊंगा।
इत्तेफाकन, हमें आपको यह बताते हुए काफी गर्व होता है कि अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार आर्थिक सुधार के दशकों में हमारी श्रम-उत्पादकता 84 प्रतिशत तक बढ़ी है। परंतु आईएलओ की वही रिपोर्ट यह भी मुझे बताती है कि निर्माण क्षेत्र में श्रमिकों के वास्तविक मजदूरी में 22 प्रतिशत की कमी हुई है (ऐसे समय में जबकि सीईओ के वेतन आसमान छू रहे हैं)। इस तरह पिछले 15 वर्षों के दौरान हमने अपनी आबादी के ऊपर के एक छोटे से हिस्से की अप्रत्याशित समश्द्धि देखी है। और ठीक उसी समय पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से शुद्ध प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की उपलब्धता घटी है।
आबादी के निचले तबके में बढ़ती भूख- खाद्य असुरक्षा की स्थिति पर संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था एफएओ का विश्व रिपोर्ट यह दिखाता है कि 1995-97 से 1999-2001 के बीच लाखों की संख्या में जितने नये भूखे भारतीय आबादी में जुड़े, वो पूरे विश्व में भूखों की कुल संख्या से भी अधिक थे। हमारे देश में ऐसे समय में भूख बढ़ी है जबकि यह इथोपिया में भी घटी है। हमारे देश के कुछ शहरों में रोज एक नया रेस्त्रां खुलता है पर हमारे देश के प्रसिद्ध कृषि अर्थशास्त्री प्रो उत्सा पटनायक बताती हैं कि एक औसत ग्रामीण परिवार 10 वर्ष पूर्व के मुकाबले आज 1000 किलोग्राम अनाज की कम खपत प्रतिवर्ष कर रहा है। खाद्यान्न उपलब्धता के यह आंकड़े संसद में प्रतिवर्ष रखे जाने वाले उस आर्थिक सर्वेक्षण से लिए गये हैं, जो हमें शुद्ध प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता (एनपीसीए) संबंधी आँकड़े मुहैया कराता है। इस सर्वेक्षण के सहारे हम 1951 से लेकर अब तक के आँकड़े प्राप्त कर सकते हैं। इसमें आप देख सकेंगे कि पिछले 15 वर्षों में यह किस तरह घटा है। यह उपलब्धता आर्थिक सुधारों के शुरूआती दिनों 1992 में 510 ग्राम थी। यह 1993 में 437 ग्राम तक गिर गया। 2005 का अपुष्ट आँकड़ा 422 ग्राम था। एक-दो वर्षों में यह थोड़ा जरूर बढ़ा है, पर पिछले 15 वर्षों में समग्र रूप से देखा जाए तो एक स्पष्ट गिरावट हुई है।
70-80 ग्राम की गिरावट काफी मामूली लगती है पर तभी तक जब तक कि आप इसे 365 दिनों और फिर एक अरब भारतीयों की संख्या से गुना नहीं कर देते। तब आप देख सकते हैं कि यह गिरावट कितनी बड़ी है। चूँकि आबादी का ऊपरी हिस्सा अब तक का सबसे अच्छा भोजन खा रहा है, तब यह सवाल खड़ा होता है कि इस पश्थ्वी पर सबसे निचले पायदान पर रहने वाली 40 प्रतिशत आबादी क्या खा रही है ?
द्वि-राष्ट्र का सिद्धांत अब पुरानी बात है, अब दो ग्रहों की सी स्थिति है- आज 5 प्रतिशत भारतीय आबादी के लिए पश्चिमी यूरोप, संरा अमेरिका, जापान और अस्टे्रलिया बेंचमार्क है और तलछटी में रहने वाली 40 प्रतिशत आबादी के लिए उप-सहारा के अफ्रीकी देश बेंचमार्क हैं, जो साक्षरता में हमसे भी आगे हैं।पिछले दशक में ऋण का बोझ दुगुना हुआ है- NSSO का 59वाँ सर्वेक्षण हमें बताता है कि जहाँ 1991 में 26 प्रतिशत खेतिहर घरों पर कर्ज का बोझ था, 2003 तक यह प्रतिशत लगभग दुगुना बढ़कर 48 प्रतिशत हो गया है।
जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि इस अव्यवस्था और आय के स्त्रोतों के ध्वस्त होने एवं जीवन-खर्च में बेतहाशा वश्द्धि के कारण बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है। हमारी समझ के अनुसार असमानता का यह ढाँचा इतना महत्वपूर्ण क्यों है ? हम इस खाई को लगातार चौड़ा ही करते जा रहे हैं। मैं गाँवों को लूटने वाली व्यवसायीकरण की इस प्रक्रिया से क्या समझता हूँ ? मैं उस पर जल्द आऊँगा। लेकिन इस बीच बहुत कुछ घटा है।
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