Monday, June 30, 2008

भारतीय किसान की हत्या/आत्महत्या का दस्तावेज़-3

पी सैनाथ के लेख का तीसरा भाग (आभार-हाशिया)
विदर्भ में किसानों की आत्महत्याएँ अगस्त आते ही पूरी तरह रूक गईं, क्योंकि जुलाई में यह खबर आई कि प्रधानमंत्री उनसे मिलने आनेवाले हैं। इस तरह लोगों ने सोच-समझ कर आत्महत्या करना छोड़ दिया। अगस्त में विदर्भ में एक भी आत्महत्या नहीं हुई ! कम-से-कम सरकारी आँकड़े तो यही कहते हैं। उनको पता था कि प्रधनमंत्री आ रहे थे। सबों ने कहा, 'हम तब-तक आत्महत्या नहीं करेंगे जब तक वे रूके रहेंगे!'' यह एक ऐसा देश है, जो खुद को ठग रहा है। इससे आपको मदद नहीं मिलेगी। मैं किसी एक मुख्यमंत्री या एक पार्टी की सरकार की ओर इशारा करने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ। यह एक राष्ट्रीय संकट है। हम खुद के प्रति जितना ईमानदार होंगे, इस संकट से बाहर निकलने में उतनी ही बेहतर स्थिति में होंगे।
यह आँकड़े वास्तव में क्या इंगित करते हैं ? अगर हम राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आँकड़ों को विस्तार देकर देखें तो पायेंगे कि 1997-2005 के बीच करीब डेढ़ लाख आत्महत्याएँ हुईं। इन आँकड़ों में आठ श्रेणियों में आने वाले लोग शामिल नहीं हैं। जैसे कि इन आंकड़ों में महिलाएं शामिल नहीं है। ऐसा इस कारण क्योंकि इस देश में आप कुछ भी करें, कोई भी नियम बना लें, हमारी मशीनरी महिलाओं को किसान नहीं मानती क्योंकि उनके नाम पर जमीन नहीं है और न ही उन्हें सम्पत्ति का अधिकार है।
कई आत्महत्याओं को कृषि आत्महत्याओं के रूप में दर्ज नहीं किया जाता
2001-02 में आंध्रप्रदेश के अनंतपुर जिले में कृषि क्षेत्र में आत्महत्याएँ करने वालों में 45 प्रतिशत महिला किसान थे। अनंतपुर के ग्रामीण इलाकों को कई घरों की मुखिया महिलाएँ हैं। क्योंकि पुरुष पलायन कर चुके हैं। संख्या कहीं ज्यादा बड़ी है। राष्ट्रीय स्तर पर भी 19 प्रतिशत या लगभग हर पाचवें घर की मुखिया महिलाएँ हैं। लेकिन हम महिलाओं की गिनती किसान के रूप में नहीं करते। हम उनकी गिनती किसान की पत्नियों के रूप में करते हैं। इस कारण इसे आत्महत्या के रूप में गिना तो जाता है, पर किसानों की आत्महत्या के रूप में नहीं। निश्चय ही खेतिहर मजदूरों के आत्महत्याओं की गिनती कभी इस श्रेणी में नहीं की जायेगी ताकि किसानों की आत्महत्याओं के आँकड़ों को कम करके बताया जा सके।
इतना ही नहीं, अनगिनत परिवारों के सबसे बड़े लड़के की आत्महत्या को भी किसानों की आत्महत्याओं की सूची में शामिल नहीं किया गया, क्योंकि हमारे पारंपरिक समाज में अगर पिता जीवित है, तो जमीन उसी के नाम रहती है, चाहे वो 75-80 साल का बूढ़ा ही क्यों न हो। इस कारण सबसे बड़ा पुत्र 50-51 का हो सकता है, वो ही खेती करनेवाला है, सब तरह के दवाब वही झेल रहा है और अंत में वह टूट कर खुद को मार डालता है। पर तहसीलदार कहता है कि मरनेवाला इंसान किसान नहीं है, क्योंकि उसके नाम कोई जमीन नहीं है। इन्हीं आधारों पर पिछले महीने यवतमाल जिले में छह सदस्यीय 'स्वतंत्र' समिति द्वारा आत्महत्या के हर एक दावे को खारिज कर दिया गया। इस समिति में जिले के उच्च सरकारी पदाधिकारियों के साथ-साथ सरकार द्वारा चुने गये दो गैर-सरकारी व्यक्ति भी शामिल थे!
इसी तरह कई मामलों को इस आधार पर खारिज कर दिया जाता है कि मरने वाले के नाम पे कोई जमीन नहीं होती। मरनेवाला घर का सबसे बड़ा लड़का था, वह परिवार चला रहा था और तीन परिवारों की देखभाल कर रहा था। पर जमीन का कोई टुकड़ा उसके नाम नहीं था। हम उसे किसान कैसे मान सकते हैं? इस तरह की कसौटी रखी गई है। मैं इस तरह की और भी बातें रख सकता हूँ। अगर आप मरते हैं और यह पाया जाता कि आप कर्ज में थे, तो वो कर्ज किसी बैंक से लिया होना चाहिए। अगर आपने किसी सूदखोर महाजन से पैसे लिए हैं तो इसे स्वीकार नहीं किया जायेगा। यवतमाल की समिति इसे स्वीकार नहीं करेगी। वे पूछेंगे कि इस बात का सबूत क्या है ? आपके पास कोई कागज दिखाने के लिए नहीं होता। इस तरह हजारों लोगों की मौत को आत्महत्या की सूची में तो रखा गया पर किसानों की आत्महत्या की सूची में नहीं रखा गया।
गलत वर्गीकरण भी हुआ है। पलायन कर गये किसानों की गिनती इस सूची में नहीं की जाती। जबकि लोग अपना गाँव छोड़ते हैं और शहरों को खुद को मार डालते हैं। मैं तो इस बात का अनुमान भी नहीं लगाना चाहता कि वास्तविक आँकड़ा क्या हो सकता है। व्यवहारिक रूप से यह करना असंभव है। दूसरा यह कि सरकारी आँकड़े कितने ही दोषपूर्ण क्यों न हो, मैं तो सोचता हूँ कि यह आँकड़े इतने भयावह हैं कि यह राष्ट्र को उद्वेलित कर सकते हैं। इसे राष्ट्र को उद्वेलित करना भी चाहिए। अगर हमारे पास सिर्फ सरकारी आँकड़े भी हैं तो मैं विश्वास कर उन्हें स्वीकार करने को तैयार हूँ। अगर आप भी इसे एक दिल दहला देने वाले आँकड़े के रूप में स्वीकार करते हैं तो हम राष्ट्र को भविष्य की ओर ले जा सकते हैं।
हर क्षेत्र में समान कारक हैं
जिन क्षेत्रों में यह संकट है, वहाँ पर क्या समानताएं हैं ? नकदी फसल, जल की भरी कमी, राष्ट्रीय औसत से भी काफी ऊंचे स्तर पर किसानों का कर्ज में होना। अगर आपके पास भारत में कर्ज में डूबे किसानों का मानचित्र हो और इन सभी आत्महत्याओं के इलाके का मानचित्र हो तो आप पायेंगे कि एक के ऊपर रखे जाने के बाद ये मानचित्र पूरी तरह एक से हो जाते हैं। देश में कर्ज में दबे सबसे ज्यादा घरों का प्रतिशत आंध्र प्रदेश में है, जो कि 82 प्रतिशत पर है, केरल में 64 प्रतिशत और कर्नाटक में 62 प्रतिशत खेतिहर-घर कर्ज के बोझ तले दबे हैं। यह सूची अंतहीन हैं। आप देख सकते हैं कि आत्महत्या का मानचित्र कर्ज के मानचित्र के साथ किस तरह मेल खाता है, जो कि इन आत्महत्याओं को सबसे बड़ा कारण है।
मैं यह बताना चाहूँगा कि लगभग हर आत्महत्या के पीछे एक नहीं कई कारण होेते हैं। हम उन सभी कारणों को इकट्ठा करने की कोशिश करने के बजाए अंतिम कारण को रिकार्ड करते हैं। मैं कर्ज में हूँ। मेरे लड़के का कॉलेज छूट जाता है। मैं अपनी बेटी की शादी करने में असमर्थ हूँ और हर रोज मैं जब बाजार जाता हूँ, सूदखोर महाजन मुझे बेइज्जत करता है। मेरी फसल नष्ट हो गई और बैंक मुझे कर्ज देने से मना कर देता है। मैं नशे में घर लौटता हूँ। मैं अपनी पत्नी से झगड़ता हूँ और फिर आत्महत्या कर लेता हूँ। अगले दिन मेरी आत्महत्या का यह कारण दर्ज किया जाता है कि मैंने अपनी पत्नी के साथ झगड़ा किया और इस कारण खुद को मार डाला। अंतिम कारण को रिकार्ड किया जाता है। यह स्वाभाविक है और हमारा ढाँचा भी इसी तरह का बना है। पर यह जितनी बातें सामने लाता है, उससे कहीं ज्यादा छुपा लेता है।
जिन क्षेत्रों में आत्महत्याएँ हो रही हैं, वहाँ बैंक ऋण की वापसी इन आत्महत्याओं का एक अन्य समान कारण है। कृषि इन क्षेत्रों में ज्यादा अव्यवस्थित है, जैसा कि विदर्भ और महाराष्ट्र के अन्य इलाकों में है। खेती की लागत काफी ज्यादा है और यह समस्या सभी क्षेत्रों में हैं। 1991 में विदर्भ इलाके में एक एकड़ खेत में कपास की खेती पर 2500 रुपये का खर्च बैठता था। आज के दिन में नये बीटी ब्रांड बीजों से खेती करने में 13,000 रूपये से ज्यादा का खर्च आता है। इस तरह हम पाते हैं कि प्रति एकड़ खेती की लागत में 500 प्रतिशत की वृद्धि है। यह जानलेवा है। इसका बोझ नहीं उठाया जा सकता।
अगर आप जानना चाहते हैं कि खेती में प्रयुक्त चीजों की लागत में कितनी भारी वृद्धि है, अगर आप समझना चाहते हैं कि बीजों का उद्योग कितना बड़ा है जिसे नियंत्रित करने और लूटने की खुली छूट हमने कुछ कार्पोरेसंस को दे दी है तो हमें यह देखना होगा कि आन्ध्रप्रदेश में क्या हो रहा है। आप समझ जायेंगे कि हम कितनी बड़ी कीमत चुका रहे हैं।
मेरे गृह राज्य आंध्रप्रदेश को अपने साफ्टवेयर निर्यात पर बड़ा गर्व है। लेकिन बीज और खेती में काम आने वाले चीजों का उद्योग आंध्रप्रदेश के साफ्टवेयर निर्यात से कहीं बड़ा है। इस तरह हम समझ सकते हैं कि बीज उद्योग कितना विशाल है। आंध्रप्रदेश अपने साफ्टवेयर निर्यात से जितना कमाता है, इस देश में लोग बीज पर उससे कहीं ज्यादा खर्च करते हैं।
यह ठीक है कि हम विदेशी साफ्टवेयर बाजार की ओर भाग रहे हैं, पर साथ ही साथ हम बीज के बाजार को पूरी तरह कुछ कंपनियों के हाथों में सौंपते जा रहे हैं। यह किसी भी स्थिति में अच्छी बात नहीं है। यह सब वही कारण है जिसके आधार पर मैंने कहा कि हम इस स्तर पर कॉरपोरेट खेती की ओर बढ़ रहे हैं।

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