वो -१
वो अलफ नंगा
धूल मिटटी में लिपटा
चले जा रहा है
चुभे हैं बदन में कांटे
बह रहा है ख़ून
ज़ख्मों से भरी है त्वचा
कहीँ जोंक, कहीँ कीढे
कहीँ मक्खिओं ने बना रखे हैं
कहीँ मक्खिओं ने बना रखे हैं
पक्के घर
पीढा का साक्षात् वैभव है
उसकी देह
बहती है हवा वो मुस्कराता नहीं
कांपती है धरती वो रोता नहीं
कांपती है धरती वो रोता नहीं
वो सुन्न से सुन्न्तर हुए जा रहा है
ऊबड़ -खाबड़ , जंगल शहर
रात-दिन , समय-पहर
इन सब के बीच
वो चले जा रहा है
बस चले जा रहा है
वो -२
एक आदिम कथा सा वो
गूंजता है कहीँ आसपास
है कभी सूत्रधार
प्रकट सा
कभी दर्शक दीर्घा में
छिपा सा
कभी एक स्वप्न सा
चरम आकर्षण है वो
तोड़-तोड़ देता हवाओं से
भुला देता सुध-बुध
पगलाता , बहलाता
खतरनाक मनवाता यूँ
कोई सम्राट हो जैसे
कोई सम्राट हो जैसे
राज्य करने को उन्मत्त जैसे
सोचता हूँ
कभी मुलाकात हो गयी
तो क्या होगा?
वो -३
पहुंचना है वहाँ
जहाँ वो
हाँ वो !
बैठा है
बैठता है पहाड़ जैसे धरती पर
गठा है बदन
चौड़े कंधे
मजबूत बाजू
फिर देखता है वो
देखतें हैं जैसे लाख सूर्य मिलकर
एक रोशनी छोड़
वो
ओझल हो जाता है
वो
ओझल हो जाता है
बिन बताए , बिन सुने
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