Thursday, November 1, 2007

थोडी सी कविताएँ-12


मेरी पृथ्वी-शायद

सुनाता हूँ कथाएं उसे
वाद के विवाद की
वाद के विलाप की
सुनती, मुस्कराती, आँगन बुहारती,
रात के लिए लालटेन संवारती
बढ़ता, फैलता, मैं, चमकता, गरजता
फिर रो देता अचानक
भूख लग गयी हो जैसे
खिलाती वो अपने हाथ से चूरी
चाय पिलाती
बाल सहलाती
माथा चूमती
जगा देती डूबे सूरज को
खुद रहती अविचल
जैसे देह न हो
पृथ्वी हो
शायद पृथ्वी ही हो
इतनी पीड़ा में देह तो घुल गयी होगी

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