Wednesday, November 14, 2007

थोडी सी कविताएं-13


जाओ सूरज


जाओ सूरज जाओ
आकाश की हदों से पार चले जाओ
जाओ, हटाओ झंझट,
भाग जाओ

सदियों से इक आंधी है बह रही
आकाश की त्वचा में
गहराती, पगलाती उसके जीवन-तंत्र को
बनता, चरमराता, खिलता, कसमसाता, यह तंत्र
झूमता है आंधी में यूँ
बीन के आगे सांप जैसे
यह खेल देखना खतरनाक है सब आंखों के लिए
ओ रौशनी वाले, बुझ जाओ
भागो, गायब हो जाओ

तुम्हारे इस जगत में भंवर भरे हैं
दरवाजे खुलते हैं अचानक
बंद हो जातें हैं
आँख की माया हो तुम
जाओ, अपनी आँख बंद कर लो
सोने दो हमको
और खुद भी सो जाओ

तेरी गर्मी से चुराई है ताकत पहाडों ने
पहाड़ होने की
नदियों ने सोखी है तेरी उर्जा सागर तक जाते हुए
घास ने उठाया है सिर तेरे विरुद्ध तेरे ही कारण
ओ भोले शासक
तू हारा है अपनी ही प्रजा से लगातार
जाओ, अपने राज्य की हदों से बाहर
निर्वासित हो जाओ

3 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बढिया कविता है।बधाई।

monika kansal said...

this is a nice poem. sometimes i wonder how you write taht well. liked those lines about grass.lakin yeh bhi sach hai, ki chahai hara wo apni praja se, fir bhi woh suraj hai,takat se bhara.jitna bhi sar uthae ghass, kya wo kar payagi suraj ka.

CA Raghav Bansal said...

Your poems are so nice to read. I really love to read this type of poems