Monday, January 14, 2008

भारतीय चिंतन की कन्धराओं से

पिछले एक लंबे समय से दर्शन की गलियों से गुजरता रहा हूँ। कई बार किसी नुक्कड़ पर ठहरा तो बस ठहरा ही रह गया। फिर अचानक शून्यों की एक भीड़ आती थी और मुझे आगे को धकेल देती थी। यात्रा फिर से शुरू हो जाती थी। इस बीच एक सवाल हर थोड़ी देर बाद आकर सिर पर बैठ जाता था कि क्या दर्शन की कोई भारतीय पहचान भी हो सकती है? हालांकि मुझे पिछले सौ सालों में लिखे गए भारतीय चिंतन के काफी दिग्गजों की जानकारी है पर मामला सिर्फ इतना नहीं है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, श्री अरविंदो घोष, मह्रिषी दयानंद, महात्मा गाँधी, सावरकर, ऍम ऍन रोय, जयप्रकाश नारायण, जे कृष्णामूर्ति, आचार्य रजनीश, स्वामी रामतीर्थ, के जे शाह और रामचंद्र गाँधी की रचनाओं को पढ़ने का मौका मिला है पर ऐसा कुछ अजीब है भारतीय होने के चक्कर में कि हम अपने दर्शन की परम्पराओं को अपनी समकालीनता में देखने में लगभग असमर्थ हैं। गाँधी को लेकर तो एक विशेष किस्म की अपराधिक कुंठा तो नज़र आती ही है। परन्तु शायद ही कोई ऐसा अन्य चिन्तक हमारे सामने हो जिसकी बात करके हम अपने भारतीय और मानव होने के सवाल पर चिंतन भी कर सकें। चाहे वो पर्यावरण का मुद्दा हो, चाहे वो अर्थव्यवस्था और वैश्वीकरण का सवाल हो, चाहे वो धर्म और राजनीति का मसला हो, चाहे वो मीडिया और इसकी मसालेदार खबरों का तूफ़ान हो, चाहे वो एकोंणमुखी नैतिकता का प्रश्न हो, हर बार हमारे पास जवाब के रुप में भारतीय दार्शनिक संदर्भ कहीं नज़र ही नहीं आ रहा । क्या इस देश के चिन्तक इतने गए-गुज़रे थे कि आज हम उनके काम के किसी भी पक्ष का अपनी समस्याओं को समझने के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकते! हज़ारों सालों की प्रतिभा को जिंदा रखने वाले लोग एक समय में आकर अचानक अप्रासंगिक हो जाते हैं। राजनीति के लिए अप्रासंगिक , संस्कृति के लिए अप्रासंगिक, साहित्य के लिए , सिनेमा के लिए अप्रासंगिक ! और तो छोडिये कहीं वामपंथी भी ऍम एन रोय या फिर जयप्रकाश नारायण की बात करते नज़र नहीं आते और न ही दक्षिणपंथी कभी अरविंदो घोष की बात करते नज़र आते हैं। रामचंद्र गाँधी को हमने दार्शनिक की कुर्सी पर तो चढाया ही नहीं है। उसे दिल्ली का पागल कहकर रास्ते पर उसकी याद को भटकने छोड़ दिया है।
एक गहरा अकाल है किसी भी विचार की परम्परा का।

ऐसी स्तिथि में क्या किसी भी चिंतन परम्परा की बात हो सकती है? अनकही दीवारों में सिमटे तर्क लहुलुहान हुए बैठे रहते हैं। संवाद की कोशिशें संसारिकता को अर्थहीन साबित करती चली जाती हैं। हम तलाश करते हैं एक और वाद की । और विचारधाराओं के बाज़ार में सेंसेक्स फिर बढ़ना-घटना शुरू कर देता है। बुद्धिजीवी अपनी जीविका का इंतजाम करने फिर निकल लेते हैं नए माल की खरीद-दारी करने। बुद्धि के आयाम में यही एक रोड़ा है जो सिवाय एक रास्ते के और कोई विकल्प नहीं छोड़ता?
वो है मृत्यु !
एक सामाजिकता की मृत्यु, एक इतिहास की मृत्यु और एक आशावाद की मृत्यु!
मात्र मृत्यु एक कल्प के रुप में सामने खड़ी होती है और आप को सिर्फ एक पल दिया जाता है फ़ैसला करने के लिए।
इतिहास का आसरा काम नहीं आता, राष्ट्रीयता का झांसा भी नहीं चलता और विचारधारा का साथ भी नहीं रहता।
बचती है तो बस एक इच्छा !
नवजात इच्छा! जिसका धर्म अभी बनेगा, जिसका कर्म अभी बनेगा और जिसकी नियति अभी बनेगी।
क्या पता भारतीय बने, क्या पता अभारतीय बने और क्या पता वो भारतीय होने के किसी सांचे के अन्दर आने को भी राज़ी न हो!
अगर कहीं किसी पहचान की शुरुआत हो सकती है, तो उस इच्छा के ही रुप से हो सकती है।

3 comments:

Anonymous said...

चाहे वह पर्यावरण का मुद्दा हो चाहे वह अर्थव्यवथा या वाश्वीकरण का सवाल हो...........क्या इस देश चिन्तक इतनें गए गुजरे थे की आज हम उनके कम के किसी भी पक्ष का अपनी समस्याओं को समझनें के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकते."स्वाभाविक और व्यावहारिक वक्तव्य है और प्रायः ऐसे विषयों पर चिंतन हुआ पर न के बराबर। वस्तुतः इतनें ये "गए गुजरे" नहीं थे। ये तो हमारी और आपकी बौद्धिकता है की उनको किस कोटी में लाकर्के खड़ा करते हैं। यहाँ समझनें योग्य बात तो यह है की और क्योंकि कुछ समय पहले ही नामवर सिंह जो एक प्रख्यात समकालीन हिन्दी आलोचक और समीक्षक के रूप में हमारे सामने आए है, समूर्ण पन्त साहित्य को, जबकि उनमें जीवन से संबंधित हर विषयों पर एक व्यापक सर्वेख्सन और विश्लेषण हुआ है। कूड़ा कह दिया। मेरे कहनें का मतलब तो ये है और क्योंकि उस समय भारतीय दर्शन में राजनीती, पर्यावरण,और आर्थिक समस्याएं हालांकि इनको पूर्ण महत्व नहीं दिया गया पर वस्तुस्थिति को ध्यान में रखते हुए जिन भी विषयों का वर्णन किया गया उनमें व्यापक दृष्टिकोण से आज के समस्याओं को ढूँढा जा सकता है। और जहाँ तक पर्यावरण की बात है तो इस क्षेत्र में भारतीय दर्शन का तो कोई जवाब ही नहीं है। और फ़िर महात्मागाधी नंद, अरविन्दो घोsh ने तो हमें चिंतन का आधार प्रदान किया, एक ऐसी नींव की राह दिखाई निःसंदेह उसमें इस प्रकार के विषयों पर एक लम्नी चिंतन परम्परा का विकास किया जा सकता था/है । पर यथास्थिति तो ये है कि उस "गए गुजरे"की श्रेणी में वे तो नहीं पर हम जरूर उस रिक्तता को भरने में महारथ हासिल कर सके ।

Sunil Aggarwal said...

अनिल,
मेरे लिए मसला यह नहीं है कि कौन सा चिन्तक क्या कह रहा है? जो कुछ भी कहा जा चुका है, क्या उसके स्मृति में होने की कोई सम्भावना आज बची है। और तो और क्या प्रतिश्रुति की भी कोई सम्भावना बच रही है। हमारे इतिहास और चिंतन की ज़मीन पर जो कुछ भी हो चुका है, क्या आज की ज़मीन पर उसके लिए आंसू भी बहाने का कोई अर्थ रह गया है। ऐसी स्तिथि में व्यक्ति दर्शन की भूमि में अगर प्रवेश करना चाहता है, तो उसके पास क्या रास्ता है। यहाँ दर्शन का अर्थ दर्शन की पढ़ाई से भी ज़्यादा अनुभूति है। क्या मृत्यु एक साक्षात् सत्य की तरह आज भी उतनी ही ताज़ा और पवित्र नहीं है ?

Sudhir Singh said...

yes sir i think you are right death is always new for us because we always forget this experience from many of our life but to feel death is very interesting and mystic and it always be mystic like us and all the philosopher of east always told us about this topic either it is Vivakananda or Osho rajnish or it is Ramkrishana Paramhans but most of the people of this world don't want to talk about death because death means Awakening and most of the people of this World are sleeping. That's why these Philosophers are not followed by today's people.Actually we are sleeping and we don't want to awake.