Tuesday, February 26, 2008

शून्य

यह शून्य क्या है? बहुत बार शून्य को एक अंकगणित की रचना से आगे देखने की कोशिश नहीं होती या फिर यूँ कहें कि हो नहीं पाती क्योंकि शून्य उस गतिविधि का, जिसमे हम रत हैं, की अपूर्णता का हमेशा ख्याल करवाता है। यहाँ 'अपूर्णता' शब्द की बजाए यूँ कहना भी ठीक होगा कि वो पूर्णता के भान को ही तोड़ता है। इससे भी बेहतर यह कहना होगा कि शून्य तर्कसंगत होने की प्रणाली की नींव में एक छेद बनकर बैठ जाता है जो उस तर्क की विकासशीलता पर एक निरंतर प्रश्न चिन्ह की तरह ताकता रहता है। यह भी कह सकते हैं कि तर्क घबराता है शून्य से। यह घभ्राहट तर्क का स्वभाव हो या न हो पर क्या इसका छिपाव नहीं है?


यह एक विचित्र बात है कि गणित के रूप में एक निरंतर उपस्तिथि के बावजूद सामान्य जीवन-दर्शन में शून्य की कोई जगह नहीं होती। हमारे सपनों में शून्य का अस्तित्व एक निषेध की तरह होता है। राजनितिक विचारधाराओं में इसकी छाया तक को पास नहीं फटकने दिया जाता। बाज़ारों में तो छोडिये, हमारे घरों में भी शून्य के लिए कोई स्थान नहीं है। शायद हमारे संसार की रचना का कोई भी तारतम्य शून्य को मानने के लिए राजी नहीं है क्योंकि शून्य यानी 'जो नहीं है' को 'है' की श्रेणी में माना ही क्यूं जाए! यह बहुत ही सर्वमान्य सिद्धांत है जिसको लेकर वाद-विवाद की कोई जगह नहीं मानी जाती।


पर .........................


जब-जब रामू गाँधी (रामचंद्र गाँधी) की दर्शन-शाला (फिलोसोफी वर्कशॉप) की बात याद आती है तो जो बल उन्होंने शून्य पर दिया है, वो बार-बार स्मृति में उभर आता है। एक बार उनकी क्लास में कुछ कुर्सियाँ पड़ी थीं, एक कुर्सी छोड़ कर बाकी सब पर लोग बैठे थे और सब का एक-एक करके परिचे हो रहा था। एक- एक करते-करते जब आख़िर में खाली कुर्सी तक पहुंचे तो रामू गाँधी बोले,"अब मिलिए शून्य जी से "। उसके बाद की हसीं में गंभीरता गायब नहीं थी।


एक दार्शनिक की शून्य के बारे में यह कथनी करनी के लोक में एक बड़ी तीखी और गहरी सेंध की तरह आज भी भिन्धि हूई है। जब-जब अपनी ज़िंदगी के सुचारू रूप पर मुग्ध होता हूँ , अभी उसकी खुशी के कुछ पल गुजरे ही होते हैं और वो सेंध मेरे सामने आकर ठहर जाती है। मैं ख़ुद को एक रूपहीन डर के भीतर कैद महसूस करता हूँ। शायद शून्य और डर- यह दो समानार्थी शब्द मान लिए गए हैं। शायद यही कारण है जिसकी वजह से शून्य के ऊपर चिंतन शुरू होने से पहले ही खेल खत्म हो जाता है। जबकि सच केवल इतना है, शून्य बस 'नहीं है' और जो नहीं है, उससे डरने की भी क्या ज़रूरत है? पर हमारी ज़िन्दगिओं का दुखांत यह है -इस मूलभूत गड़बड़ को ही हमने अपने यथार्थ का आधार बना लिया है। हमारे पूर्वाग्रहों की गिनती चाहे जितनी भी क्यूं न हो, पर उनकी सबकी मूल प्रकृति शून्य-विरोधी है क्योंकि शून्य पूर्वाग्रह नहीं है, मात्र आग्रह है, जिसका हम आमतौर पर मुहं मोड़ कर एक चुपचाप वापसी के रूप में जवाब देते हैं।
आज अगर कोई सबसे बड़ी चुनौती है तौ वो इसी आग्रह का उत्तर देने की है। देहात्मबोध इस आग्रह से पीठ किए बैठा है। जबकि गहरे में वो जानता है की वो बस एक नमक की गुडिया है। जो देर-सवेर काल के पानियों में घुल जाएगा। किस में? उसमे 'जो नहीं' है। सो, चिरंतन शरण किस्में है? शून्य में। पर आज उसी को नकार कर हम जी रहे हैं। एक बड़ी ही सरल अंक-गणितीय इकूअशन है।
१ + ० = १
२ + ० = २
इस इकूअशन के दायीं और बांयी और की संख्याएँ गणितीय सिद्धांतों के अनुसार बराबर हैं, पर जिस तरह गणित में जमा शून्य लिखना सम्भव है, ठीक उसी तरह क्या जमा शून्य के सच को स्वीकार कर सकते हैं? मुझे ऐसा लगता है की उपरोक्त सच किसी न किसी रूपक के तौर पर हमारे जीवन में कार्यशील रहता है जिसकी अनदेखी देहात्मबोध को एक कैद बना देती है पर इसके विपरीत उसकी स्वीकृति उसी कैद का एंटी-डॉट बन जाती है। ध्यान रहे यहाँ पर रेखांकन सिर्फ़ स्वीकृति का है। बल्कि कैद या एंटी-डॉट का नहीं । क्योंकि दोनों ही पूर्वाग्रहों की दुनिया के शब्द हैं, जबकि शून्य मात्र आग्रह की दुनिया का जिसका कोई रूप नहीं , कोई आकार नहीं। अगर कोई गुन है तौ बस पुकारने का गुन । बस इतनी ही सम्पदा है उसकी पोटली में। इस गरीब को अपने राज्लोक में थोडी सी जगह देने से हमारा क्या बिगड़ जाएगा?

2 comments:

anilpandey said...

उत्तम सर !शून्य के विषय में व्यक्त किए गए आपके ये विचार बहुत ही अच्छे लगे। शून्य तो उपस्थित हर एक जगंह रहता है । पर लोग हो ही गए हैं ऐसे कि उनकी चेतना उस शून्य तक पहुँच ही नहीं पाती है । इसी लिए शयेद आज वे सभी विशेषताएं स्वयमेव संवेदनशून्य होती जा रही हैं जो कभी मानव जीवन की वास्तविक अनुभूति हुआ करती थी । सही है ना?

Sudhir Singh said...

Truly it is great and Zero always exist and we also come from zero and one day we all become zero.Nice Sir.