बनारस अभी अंधेरे में है। ट्रेन जैसे-तैसे पटरिओं के आसरे यहाँ तक आ गई। एक रात थोड़ा सो लिया; दूसरी रात जागा हूँ लिखता हुआ। कागज़ पर कलम रौशनी लिख सके- इस उम्मीद से लिखता हूँ सफ़ेद अंधकार में काले अन्धकार के साथ। तन अभी है। कुछ हवा जैसा छूता है उसे। आवाज़ों जैसा कुछ सुनता है और यह भी कोई बोल रहा है कि तुम उजाले के एक अत्यन्त सुंदर दृश्य में बैठे हो। उसकी बात पर मुझे कोई भरोसा नहीं हो रहा और मैं कलम को घिस रहा हूँ अंधेरे में अँधेरा जला देने के लिए। मुझे किसी का इंतज़ार है पर उसका कहना था कि 'नहीं, अभी नहीं, थोडी देर बाद ।' यह 'थोडी देर' बीतने वाली ही लगती है। तब तक मैं लिख रहा हूँ।
त्वचा को हल्के-हल्के थपेडे लग रहे हैं। उनसे किरे जा रहे हैं वर्ण। शब्दों की पटरिओं पर फिसलते हुए। लेकिन हर पटरी बेगानी है -पहले से बनी हुई अंधेरे में लुप्त होती हुई। (पटरिओं के लिए बड़ा आसान हो जाता है- मुसाफिरों को ले जाना पर किसी-किसी मुसाफिर के लिए पटरी ही पीड़ा बन जाती है) एक स्वर टोही बन पाता इस उम्मीद से किरा था पर पटरी उसे उड़ा ले गई।
अभी भी हवा और उसके थपेडे मेरे हैं। किरती हैं लालसाएं पर मेरी लाठी बनने से पहले ही इधर-उधर को हो लेतीं हैं। यह ठहरती क्यूं नहीं हैं मेरे पास? पर क्या तरंगे भी कभी ठहरती हैं? लहर कैसे रुक जाएगी? पर मैं तो आया था गंगा के पास किसी एक लहर को स्थाई मित्र बनाने, उससे देर तक बतियाने। पर छुअन जहाँ तक भी पहुँचती है, वहाँ तक लहरें ही लहरें हैं गंगा की। ऐसी छुअन एक भी नहीं जो दोबारा लौट आती हो एक आसरे की आदत को दो-चार पल लंबा कर देने। पानी और घाट में से मुश्किल हो जाता है किस पर बैठा हूँ? इन अनेकों नामों की फैरिसत में इस घट का घाट भी तो कोई होगा?
त्वचा को हल्के-हल्के थपेडे लग रहे हैं। उनसे किरे जा रहे हैं वर्ण। शब्दों की पटरिओं पर फिसलते हुए। लेकिन हर पटरी बेगानी है -पहले से बनी हुई अंधेरे में लुप्त होती हुई। (पटरिओं के लिए बड़ा आसान हो जाता है- मुसाफिरों को ले जाना पर किसी-किसी मुसाफिर के लिए पटरी ही पीड़ा बन जाती है) एक स्वर टोही बन पाता इस उम्मीद से किरा था पर पटरी उसे उड़ा ले गई।
अभी भी हवा और उसके थपेडे मेरे हैं। किरती हैं लालसाएं पर मेरी लाठी बनने से पहले ही इधर-उधर को हो लेतीं हैं। यह ठहरती क्यूं नहीं हैं मेरे पास? पर क्या तरंगे भी कभी ठहरती हैं? लहर कैसे रुक जाएगी? पर मैं तो आया था गंगा के पास किसी एक लहर को स्थाई मित्र बनाने, उससे देर तक बतियाने। पर छुअन जहाँ तक भी पहुँचती है, वहाँ तक लहरें ही लहरें हैं गंगा की। ऐसी छुअन एक भी नहीं जो दोबारा लौट आती हो एक आसरे की आदत को दो-चार पल लंबा कर देने। पानी और घाट में से मुश्किल हो जाता है किस पर बैठा हूँ? इन अनेकों नामों की फैरिसत में इस घट का घाट भी तो कोई होगा?
4 comments:
मित्र यदि अन्यथा न लें तो, कविता कहीं कहीं बिखर रही है.
विजय भाई से सहमत होते हुए भी आपका यह पीस बहुत पसंद आया. साथ लेकर चला. बहुत बधाई.
विजय भाई
आपकी आलोचना सही है। गद्य कविता के आयाम में काव्य के प्रश्न बहुत किस्म की मूलभूत परिभाषाओं को हिला देते हैं। यह मेरे लिए एक गंभीर मामला था। जब मैं लिख रहा था तो यह एक यात्रा-संस्मरण की इच्छा से लिखा जा रहा था पर कुछ ही कदम चलने के बाद उसका ढांचा मेरे हाथ से छूटता हुआ किसी और ही दिशा में निकल गया जहाँ काव्य-अनुभव आना शुरू हो गया। एक कविता के रूप में इसकी कमजोरी का ज्ञान था पर फिर भी साहित्यिकता के स्तर पर मुझे यह एक ठीक-ठाक रचना लगी। सो, इसे मैंने पोस्ट कर दिया। और हाँ, इसके कविता होने के दावे को थोड़ा कम ज़रूर कर रहा हूँ।
सुन्दर पोस्ट
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