Tuesday, July 1, 2008

भारतीय किसान की हत्या/आत्महत्या-4

पी सैनाथ के लेख का चौथा भाग (आभार- हाशिया )
खेती से होनेवाली आय ध्वस्त हुई है
आय की ओर देखें। खेती से होनेवाली आय का ध्वस्त होना इस संकट का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। कई क्षेत्रों में खेती से होनेवाली आय पूरी तरह समाप्त हो चुकी है। जैसा कि मैंने पहले बताया भारत के खेतिहर घरों में राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति औसत मासिक खर्च 503 रुपये है। यह आँकड़ा गरीबी रेखा के नीचे रहनेवाले परिवारों के 425 रुपये या ग्रामीण भारत के आंकड़ों के काफी करीब हैं। 6 राज्य औसतन गरीबी रेखा के नीचे रहे हैं, जो कि 425 रुपये से कम हैं। 5 या 5 राज्य इस देश में इसी तरह जी रहे हैं।
ऐसे कई घर हैं जो 225 रुपये प्रति व्यक्ति मासिक खर्च पर गुजर-बसर कर रहे हैं। यह आँकड़े राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के हैं। 225 रुपये प्रति मासिक खर्च का मतलब है कि 8 रुपये प्रतिदिन। इतने में ही आपको भोजन, कपड़े, जूते, शिक्षा, स्वास्थ्य व परिवहन की व्यवस्था करनी है। इस तरह के जीवन में फिर क्या बच जाता है ? आप हमेशा कर्ज में रहेंगे। 55 प्रतिशत भोजन पर खर्च होंगे, 18 प्रतिशत जलावन, जूते और कपड़े पर खर्च होंगे। इन सभी क्षेत्रों में आप स्कूल और कॉलेज छोड़नेवालों की बड़ी संख्या पायेंगे। बीएससी डिग्रीधारी स्नातक किसी तरह जिंदगी चलाने के लिए अपने पुश्तैनी खेतों में खेतिहर मजदूर की तरह काम कर रहे हैं, जबकि हमारे कृषि विश्वविद्यालयों ने निजी कंपनियों आदि के लिए शोध करने का काम भर ले रखा है, वे अब हमारे किसानों के लिए अब कोई काम नहीं करते।
ग्रामीण संकट पर उच्च वर्ग की राय
तलछटी में पड़े इन हाने के इस संकट को हमारा उच्च या कुलीन वर्ग किस तरह देखता है ? मुझे अपने देश के एक अग्रणी आर्थिक अखबार को उद्धृत करने की अनुमति दें। इस अखबार की एक प्रतिनिधि थोड़ा निराश होकर लिखती हैं-' तलछटी में पड़े ये 40 करोड़ एक निराशा हैं'' क्यों ? वे ज्यादा खरीददारी नहीं करते। मैं नहीं जानता वे 8 रुपये प्रति व्यक्ति खर्च में क्या खरीद सकते हैं। वो कहती हैं कि वे ज्यादा नहीं खरीदते। लेकिन ऐसा लिखनेवाले की भी जिम्मेवारी है। वो यह इन शब्दों के साथ अपना लेख समाप्त करती हैं, 'इस बाजार का दोहन करना कठिन है'।
विदर्भ का संकट
विदर्भ के बारे में हम क्या कहेगें जहां से पिछले कुछ वर्षो में ढेर सारी आत्महत्याओं की रिर्पोर्टिंग की गई है ? जैसा कि श्रीमती अल्वा ने कहा, जो हम मीडिया के जरिये देख पाते है वह काफी छोटी संख्या है। स्थानीय दर्जनों पत्रकारों ने इस मुद्दे की जीवित रखा है । उन्हें इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए। विदर्भ में कितनी आत्महत्याएंॅ हुई हैं ? क्या उनमें कोई कमी आई ? मीडिया के एक वर्ग के अनुसाार, आत्महत्याएँ रूक गई हैं। वास्तव में सरकार ने समय-समय पर ऐसे कई आँकड़े प्रस्तुत किये हैं, जो काफी विरोधाभाषी हैं। सरकार ने शीर्षस्थ स्तर पर ऐसी किसी रिपोर्ट पर हस्ताक्षर नहीं किया है, जिसमें यह दिखाया गया हो कि आत्महत्याएँ घटी हैं। ऐसा क्यों है ? इस कारण कि ऐसा करने से सरकार गंभीर संकट में फँस जायेगी।
उच्च न्यायालय के नागपुर बेंच ने यह आदेश दिया था कि राज्य सरकार को इस तरह के आँकड़ों की जानकारी एक बेवसाइट के माध्यम से अवश्य देनी चाहिए। न्यायालय ने यह फैसला एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान दिया। अगर आप सरकारी वेबसाईट देखते हैं तो आपको ऐसे किसी रिपोर्ट को पढ़ने की आवश्यकता नही है। वेबसाईट पर दिये गये आँकड़ें इतने झूठे हैं कि ऐसा लगता है कि वो आत्महत्याओं में कमी दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। मुझे अमरावती के आयुक्त की रिपोर्ट से वास्तविक संख्या बताने की इजाजत दें और देखें कि उन्हें किस तरह प्रस्तुत किया गया ।
विदर्भ के इन जिलों में आत्महत्याओं की कुल संख्या, सिर्फ किसानों की आत्महत्याओं की नहीं, 1500 नहीं है । 2001 से, सबसे ज्यादा गंभीर वर्षो में, यह 2000 नहीं थी, यह 1300 नही थी और यह 1700 भी नहीं थी। पुलिस थानों ने इन 6 जिलों में 15980 आत्महत्याएँ दर्ज कीं। यह सभी आत्महत्याएँ किसानों की नहीं थी, यहीं पर वे इन आँकड़ों का मजाक बना देते हैं। वे इन 15980 आत्महत्याओं में से वे मात्र 578 या ऐसे ही किसी आँकड़े के पास पहुँचते हैं, जो किसानों की आत्महत्याओं से संबंधित हैं। उन्होंने ऐसा कैसे किया, वो हम आगे देख सकते हैं। संयोगवश यह सभी 6 जिले पूरी तरह ग्रामीण जिले हैं। लेकिन अंतिम आँकडंे यह दर्शाते हैं कि इन 15000 आत्महत्याओं में मात्र 20 प्रतिशत आत्महत्याएँ ही किसानों ने की थी। ऐसा वो पूरी तरह 100 प्रतिशत ग्रामीण जिलों के बारे में कहते हैं। यह एक रहस्य ही है कि वो आत्महत्याएँ करनेवाले कौन थे या हैं। ये कोई औद्यौगिक जिले नहीं थे, यदि मात्र 2939 व्यक्ति ही इनमें से किसान थे, जो कि 15980 में आँकड़े के 20 प्रतिशत से भी कम है, तो वो बाकी लोग कौन थे ? इससे तो ऐसा लगता है कि किसानों की स्थिति काफी अच्छी थी ! वास्तव में बहुत अच्छी थी ! बाकी सारे लोग आत्महत्या कर रहे थे।
किसी भी राज्य में गरीबी का अब तक का सबसे बड़ा सर्वेक्षण
मैं महाराष्ट्र सरकार को एक बात के लिए पूरा श्रेय देना चाहता हूँ। वो यह कि उसने राज्य में कृषक-घरों का सबसे बड़ा अध्ययन किया। यह एक ऐसा अध्ययन है जिसको पढ़ने के लिए हर व्यक्ति को थोड़ा वक्त निकालना चाहिए। यह अध्ययन आपके नसों में दौड़ते खून को बर्फ सा ठंडा कर देगा। इस सर्वेक्षण के लिए हम प्रधानमंत्री की यात्रा के शुक्रगुजार हैं, जिस कारण हर कोई इसमें लगा। उन्होंने राज्य के सभी 17.64 लाख घरों का सर्वेक्षण किया (लगभग 1 करोड़ लोगों का)। विदर्भ के उन सभी 6 जिलों में कृषि-घरों का सर्वेक्षण किया गया, जिनको सरकार कृषि-संकट के कारण प्रभावित मानती है (वैसे विदर्भ में कुल 11 जिले हैं ) । ये आँकड़े क्या दिखाते हैं ? इस सर्वेक्षण पर ही वो आंकड़े आधारित हैं, जो अमरावती के आयुक्त की रिपोर्ट में प्रस्तुत किये गये हैं (जो दस्तावेज मैंने आपको देने का वादा किया है)। प्रभावित 6 जिलों में से 5 जिले अमरावती के आयुक्त के कार्य-क्षेत्र में आते हैं। लेकिन उन्होंने अपनी रिपोर्ट में ६ वें जिले वर्धा के आँकड़ों को भी शामिल किया है । अमरावती के आयुक्त की रिपोर्ट कहती है कि : ' इन लगभग 20 लाख कृषक घरों (17.64 लाख) में से लगभग 75 प्रतिशत घर गरीबी में हैं। ' अगर आप एक परिवार में कुल 5 से 6 व्यक्ति भी मानें तो यह रिपोर्ट कहता है कि 4.31 लाख घर 'बहुत ही ज्यादा गरीब'' हैं। ऐसा सरकार कहती है। अगला वर्गीकरण 'औसत गरीबी' का है, मैं नही जानता इसका क्या अर्थ है। लेकिन यह रिपोर्ट स्वीकार करता है कि 75 प्रतिशत कृषक घरों में किसी न किसी प्रकार की गरीबी है। ' आश्चर्यजनक रूप से, तीन लाख से ज्यादा परिवारों को अपनी बेटियों के विवाह में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था, जो कि इन आत्महत्याओं का काफी बड़ा कारण है। ये तीन लाख से ज्यादा घर एक या एक से अधिक बेटियों की शादी नहीं कर पा रहे हैं। यह एक विस्फोटक स्थिति है। ' सरकार अपने ही अध्ययन में यह दिखाती है कि जिन घरों का उसने सर्वेक्षण किया, उनमें से 93 प्रतिशत घरों में कर्ज भी आत्महत्या का एक कारण था। ' पैकेज की घोषणा के बाद यह आशा की गई थी कि आतमहत्याओं में कमी होगी। पुलिस थानों के रिकार्ड दिखाते हैं कि 2005 के 2425 के मुकाबले 2006 में यह संख्या बढ़कर 2832 हो गई। 407 ज्यादा मामले दर्ज हुए, जो कि काफी बड़ी वश्द्धि है। ऐसा इस कारण क्योंकि इन 6 जिलों में प्रति जिले के आधार पर गणना करें तो हर जिले में 60 से ज्यादा आत्महत्याएँ और बढ़ गईं। और भी इसी तरह के ढ़ेर सारे आँकड़े हैं। तब वो किस तरह 'कमी' बताते हैं ? मैं तो सोचता हूँ कि इसके पीछे कोई चतुर राष्ट्रवादी भारतीय मस्तिष्क है। पहली श्रेणी में पुलिस थानों के रिकॉर्ड कहते हेैं कि पिछले साल 2832 आत्महत्याएँ हुइर्ं। रिपोर्ट का दूसरा कॉलम हमें इन 2832 आत्महत्याओं में किसानों की आत्महत्याओं का ऑकड़ा देता है और यह संख्या लगभग 800 घट जाती है । तीसरा कॉलम हमें किसानों के रिश्तेदारों की आत्महत्याओं से संबंधित ऑकड़ें देता है, जो कि किसान नहीं हैं। तब यह संख्या घटकर 1600 हो जाती है। और इस तरह किसानों की आत्महत्याओं को कृषक घरों में होने वाली आत्महत्याओं से अलग बताया जाता है। तब 'छानबीन हो रहे मामलों'' की बारी आती है। इसके अलावे एक अन्य टेबल में उन आत्महत्याओं की सूची है, जो 'गरीबी'' के कारण हुईं। हर कालम के साथ यह संख्या घटती जाती है। अंतिम कॉलम तो अपने आप में अदभुत है। ऐसा आपको इस पृथ्वी पर कहीं और देखने को नहीं मिलेगा। इसमें 'योग्य आत्महत्याओं'' का एक कॉलम है, योग्य वर या वधू की तरह। इसका मतलब उन आत्महत्याओं से है, जिन परिवारों को सरकार ने मुआवजे के योग्य पाया है। इस तरह 2823 से घटकर यह ऑकड़ा अंतिम कॉलम में घटकर 578 रह जाता है। यह 'योग्य' आत्महत्याओं की वही संख्या है, जिनको अधिकारी आत्महत्या के आँकड़े के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इस महीने (अगस्त का महीना अभी समाप्त ही हुआ है) हमारे पास अब तक आत्महत्याओं के बारे में कोई सूचना नहीं है, क्योंकि अगर आप हमारे गणितज्ञों को आगे बढ़ने का मौका दें तो वे आत्महत्याओं की बिल्कुल एक नई ही परिभाषा गढ़ देंगे। लेकिन समग्र रूप से यह संख्या बढ़ती ही जा रही है। आप यह देख सकते है। इस साल जबकि कोई आत्महत्या नहीं हुई या आत्महत्याओं में काफी तीव्र कमी हुई है, महाराष्ट्र सरकार के अनुसार 700 से ज्यादा आत्महत्याएँ हो चुकी हैं। सरकार इन ऑकड़ों को स्वीकार क्यों नहीं करती ? यह इस कारण क्योंकि यह बेवसाइट न्यायालय के आदेश के अधीन चलाया जा रहा है और ऐसी स्थिति में अगर आपके ऑंकड़े विरोधाभाषी होंगे तो आप गंभीर संकट में पड़ सकते हैं। पर हम इन आँकड़ों के साथ हमेशा खेल सकते हैं।

1 comment:

Ashok Pande said...

डरावने आंकड़े हैं लेकिन बहुत बड़ी और कड़वी वास्तविकता है.

कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं पा रहा हूं. पी साइनाथ के लेखन का पहले से ही क़ायल हूं.

यहां ब्लॉगजगत पर इसे उपलब्ध कराने का धन्यवाद!