पी सैनाथ के लेख का दूसरा हिस्सा (आभार-हाशिया )
खेती का नीति-संचालित विध्वंस जैसा कि हर मंत्री व हर प्रधानमंत्री भी मानते हैं कि कृषि में सार्वजनिक निवेश काफी तेजी से घटा है, पिछले 10-15 वर्षों में तो यह ध्वस्त होने के कगार तक पहुँच चुका है। यह एक ऐसा मामला है, जिसे अब सरकार महसूस करती है कि पलटे जाने की जरूरत है। हमारे अग्रणी कृषि अर्थशास्त्री हमें यह बताते हैं कि जहाँ कश्षि-क्षेत्र में 1989-90 में कुल विकास खर्च जीडीपी का 14.5 प्रतिशत था, 2005 में यह घटकर 5.9 प्रतिशत रह गया। यह 30,000 करोड़ रुपये प्रति वर्ष की भरी गिरावट है या 120,000 करोड़ रुपये का आय घटा है। मैं अक्सर यह महसूस करता हूँ कि वायु सेना भेज गाँवों को बमबारी कर खत्म कर देना चाहिए। संभवतः ऐसा करना उस लंबी क्षति से कम भयावह होगा, जो कृषि में सार्वजनिक निवेश की वापसी के कारण हुआ है।रोजगार में जबरदस्त कमी हुई है
राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम द्वारा पिछले डेढ़ वर्षों में किसी तरह (लेकिन पर्याप्त संख्या से काफी कम) जरूरतों को पूरा किया जा सका है, जिस कार्यक्रम का मैं बड़ा समर्थक हूँ। यह कार्यक्रम हर जगह उस तरीके से शुरू नहीं किया गया, जिस तरह से किया जाना चाहिए था। मैं आशा करता हूँ कि यह कार्यक्रम और भी जिलों में शुरू किया जायेगा और इसकी सघनता बढेगी क्योंकि गाँवों में व्याप्त संकट की स्थिति में यह एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम है। पिछले दो वर्षों में यह हमारे द्वारा किये गये बड़े प्रयासों में से एक है। लेकिन यह भी पूरी तरह पर्याप्त नहीं है।सेज बने लेकिन कोई भूमि सुधार नहीं हुआ
काश्तकारों के लिए भारी लगान भी एक समस्या है। आन्ध्रप्रदेश में हुए आत्म-हत्याओं के मामले में आप पायेंगे कि कुछ क्षेत्रों में आत्महत्या करने वालों की बड़ी संख्या वास्तव में काश्तकारों की थी। वे अगर 28 बोझा धान काटते थे तो उसमें से 25 बोझा उन्हें खेत के मालिकों को देना पड़ता था। अगर अचानक आये चक्रवात या अन्य किसी कारण से फसल को नुकसान पहुँचाता है तो क्षतिपूर्त्ति और मुआवजा गाँव में नहीं रहने वाले जमीन के मालिक को ही मिलता है। हमारे पास काश्तकारी कानून संबंधी कोई सुधार भी नहीं है। यह काफी विस्मयकारी है कि हम 6 महीनों में एक सेज की स्वीकृति दे सकते हैं लेकिन तीन राज्यों को छोड़ कर हम इन 60 वर्षों में देश भर में भूमि सुधार नहीं कर सके हैं।खेती में बढ़ती कृत्रिम लागत
खेती के लागत में विस्फोट एक अन्य मुद्दा है, एक प्रक्रिया जिसे बहुत हद तक नियंत्रित और कश्त्रिम रूप से घटाया-बढ़ाया जाता है। शोषणकारी अंतर्राष्ट्रीय सहमतियाँ जो हमने कर रखीं हैं, वो भी एक गंभीर मुद्दा हैं और वे हमारे किसानों के हितों को बुरी तरह नुकसान पहुँचा रही हैं। तैयार फसलों का तेजी से गिरता बाजार मूल्य भी एक चिंताजनक पहलू है क्योंकि कृषि उत्पादों के व्यापार पर ग्लोबल कंपनियों ने नियंत्रिण कर लिया है और वे कृषि उत्पाद के कीमतों के साथ छेड़-छाड़ करते हैं। इस कारण जब पश्चिम में कॉफी मूल्य में भारी तेजी आई थी तब भी केरल में कॉफी उगाने वालों ने आत्महत्याएँ की थीं, खासकर 2000 से 2003 के बीच में।
आत्महत्याएँ डरावनी हैं। कहाँ कितनी आत्महत्याएँ हुईं? मैं आँकड़ों के इस जाल में नहीं उलझना चाहता। हम कुछ ही दिनों में द हिंदू में इस पर एक बड़ी व विस्तश्त खबर प्रकाशित करने जा रहे हैं। मैं कोई पूर्वानुमान नहीं लगाना चाहता। हालाँकि आपने जो पिछले साल तक के आँकड़े दिये थे और जहाँ तक मुझे याद है 1993 से अब तक एक लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्याएँ की हैं। पिछले 10 सालों के आँकड़ें दिल दहला देने वाले हैं। फिर भी आप पायेंगे कि ये आँकड़े गलत हैं। सच्चाई यह नहीं है। ऐसा कई कारणों से है। मैंने पाया है कि इसमें उन 4 वर्षों को भी जोड़ दिया गया है, जिस अवधि में किसानों की आत्महत्याओं के आँकड़े उपलब्ध ही नहीं हैं। आप उन वर्षों के आधार पर किसानों की आत्महत्याओं का औसत निकाल रहे हैं, जो वर्ष महत्वहीन हैं।
हमने राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो में 1995 से किसान आत्महत्याओं के आंकड़े इकट्ठा करना प्रारंभ किया है। किसी भी नयी संग्रहण प्रणाली को परिणाम देने में वक्त लगता है। पहले के दो वर्षों में तो ज्यादातर राज्यों ने तो ठीक से रिपोर्ट ही तैयार नहीं किया। राज्यों को आँकड़ा इकट्ठा करने के तरीक को समझने में भी समय लगता है। वास्तविक और विश्वसनीय आँकड़े 1997 से आने प्रारंभ हुए। इस तरह आप एक लाख आत्महत्याओं के जिस आँकड़ों को देख रहे हैं, वे 1993 से 2003 के बीच के नहीं बल्कि 1997 से 2003 के बीच के हैं। यह दिल दहला देनेवाले आँकड़े हैं। कई कारणों से यह संख्या अभी भी काफी कम ही सामने आ पाई है, जिसके कारणों पर मैं अब आ रहा हूँ।भ्रमित करने वाले और अव्यवस्थित हैं आत्महत्याओं के आँकड़ें
लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि आँकड़े निर्णायक मुद्दा नहीं हैं। मैं सोचता हूँ कि एक लाख से ज्यादा का आँकड़ा भी काफी भयावह है। डराने वाली बात यह है कि अगर आप आँकड़ों पर गौर करें तो पाएँगे कि दो-तिहाई आत्महत्याएँ वैसे 6 राज्यों में हुई हैं, जहाँ भारत की कुल आबादी का लगभग एक-तिहाई हिस्सा रहता है। ज्यादातर आत्महत्याएँ उन इलाकों में हुई हैं, जहाँ नकदी फसल उगाया जाता है। अनाज उपजाने वाले किसानों ने नकदी फसल उगाने वाले किसानों के मुकाबले कम आत्महत्याएं की हैं। पिछले पन्द्रह वर्ाों में हमने किसानों को नकदी फसल की ओर प्रेरित किया है। हमने उन्हें निर्यात करने को कहा है क्योंकि निर्यात विकास की ओर ले जाता है। सत्तासीन चाहे जो भी हो, हमने उन्हें नकदी फसल की ओर धकेला और अब हम ऐसा करने की कीमत चुका रहे हैं। हमने उन्हें उतार-चढ़ाव भरे वैश्विक मूल्यों के बीच फँसा दिया है, जिनका नियंत्रण कॉरपोरेशनस् (संघों) के पास है। ऐसा अक्सर वैसे व्यापारिक संघों द्वारा किया जाता है, जिन्हें हमारे किसान नहीं देख सकते और जो न ही हमारे लोगों के प्रति उत्तरदायी हैं।
डराने वाला अन्य पहलू यह है कि ये पाँच-छः राज्य एक हद तक पड़ोसी हैं। अन्य राज्य भी हैं, जहाँ स्थिति बुरी है। पर ये 5-6 राज्य काफी बुरी स्थिति में हैं। महाराष्ट्र सबसे बुरे हाल में है। कुछ राज्यों में आत्महत्याओं में वश्द्धि तो कुछ राज्यों में कमी देखी जा रही है। चिंताजनक बात यह है कि जिन कुछ राज्यों में आत्महत्याओं में वश्द्धि देखी जा रही है, उन राज्यों में अगले 6 वर्षों में यह संख्या दुगुनी हो सकती है।
1 comment:
एक अच्छे लेख के लिए आभार्
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